शिक्षाप्रद कहानी


एक तमिल  पुजारी थे-पंडित गोकरण नाथ । लोग उन्हें अत्यंत श्रद्घा एवं भक्ति भाव से देखते थे। वहां मंदिर को कोइल कहा जाता है।  पुजारी प्रतिदिन सुबह कोइल जाते और दिनभर मंदिर में रहते। सुबह से ही लोग उनके पास प्रार्थना के लिए आने लगते। जब कुछ लोग इकट्ठे हो जाते, तब मंदिर में सामूहिक प्रार्थना होती।

जब प्रार्थना संपन्न हो जाती, तब पुजारी लोगों को अपना उपदेश देते। उसी नगर में एक गाड़ीवान था। वह सुबह से शाम तक अपने काम में लगा रहता। इसी से उसकी रोजी-रोटी चलती।

यह सोचकर उसके मन में बहुत दुख होता कि मैं हमेशा अपना पेट पालने के लिए काम-धंधे में लगा रहता हूं, जबकि लोग मंदिर में जाते हैं और प्रार्थना करते हैं। मुझ जैसा पापी शायद ही कोई इस संसार में हो।
यह सोचकर उसका मन आत्मग्लानि से भर जाता था। सोचते-सोचते कभी तो उसका मन और शरीर इतना शिथिल हो जाता कि वह अपना काम भी ठीक से नहीं कर पाता। इससे उसको दूसरों की झिड़कियां सुननी पड़तीं।

जब इस बात का बोझ उसके मन में बहुत अधिक बढ़ गया, तब उसने एक दिन पुजारी के पास जाकर अपने मन की बात कहने का निश्चय किया।

अतः वह गोकरण जी के पास पहुंचा और श्रद्घा से अभिवादन करते हुए बोला- 'हे धर्मपिता! मैं सुबह से लेकर शाम तक एक गांव से दूसरे गांव गाड़ी चलाकर अपने परिवार का पेट पालने में व्यस्त रहता हूं। मुझे इतना भी समय नहीं मिलता कि मैं ईश्वर के बारे में सोच सकूं। ऐसी स्थिति में मंदिर में आकर प्रार्थना करना तो बहुत दूर की बात है।'
पुजारी ने देखा कि गाड़ीवान की आंखों में एक भय और असहाय होने की भावना झांक रही है। उसकी बात सुनकर पुजारी ने कहा-' तो इसमें दुखी होने की क्या बात है?'
गाड़ीवान ने फिर से अभिवादन करते हुए कहा- 'हे धर्मपिता! मैं इस बात से दुखी हूं कि कहीं मृत्यु के बाद ईश्वर मुझे गंभीर दंड ने दे। 
स्वामी, मैं न तो कभी मंदिर आ पाया हूं और लगता भी नहीं कि कभी आ पाऊंगा।'
गाड़ीवान ने दुखी मन से कहा- 'धर्मपिता! मैं आपसे यह पूछने आया हूं कि क्या मैं अपना यह पेशा छोड़कर नियमित मंदिर में प्रार्थना के लिए आना आरंभ कर दूं।' पुजारी ने गाड़ीवान की बात गंभीरता से सुनी।
उन्होंने गाड़ीवान से पूछा- 'अच्छा, तुम यह बताओ कि तुम गाड़ी में सुबह से शाम तक लोगों को एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचाते हो। क्या कभी ऐसे अवसर आए हैं कि तुम अपनी गाड़ी में बूढ़े, अपाहिजों और बच्चों को मुफ्त में एक गांव से दूसरे गांव तक ले गए हो?'

गाड़ीवान ने तुरंत ही उत्तर दिया- 'हां धर्मपिता! ऐसे अनेक अवसर आते हैं। यहां तक कि जब मुझे यह लगता है कि राहगीर पैदल चल पाने में असमर्थ है, तब मैं उसे अपनी गाड़ी में बिठा लेता हूं।'
पुजारी गाड़ीवान की यह बात सुनकर अत्यंत उत्साहित हुए। उन्होंने गाड़ीवान से कहा- 'तब तुम अपना पेशा बिलकुल मत छोड़ो। थके हुए बूढ़ों, अपाहिजों, रोगियों और बच्चों को कष्ट से राहत देना ही ईश्वर की सच्ची प्रार्थना है। जिनके मन में करुणा और सेवा की यह भावना रहती है, उनके लिए पृथ्वी का प्रत्येक कण मंदिर के समान होता है और उनके जीवन की प्रत्येक सांस में ईश्वर की प्रार्थना बसी रहती है।
मंदिर में तो वे लोग आते हैं, जो अपने कर्मों द्वारा ईश्वर की प्रार्थना नहीं कर पाते। तुम्हें मंदिर आने की बिलकुल जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि सच्ची प्रार्थना तो तुम ही कर रहे हो।' यह सुनकर गाड़ीवान अभिभूत हो उठा। उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह चली। उसने पुजारी रबी जी का अभिवादन किया और काम पर लौट गया।
शिक्षा ~हमारा जीवन तभी सफल होता है जब हमारी वजह से कोई खुश होता है 
          धन्यवाद 

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